आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की असंख्य शक्तियाँ गायत्री की असंख्य शक्तियाँश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की शक्तियों का विस्तृत विवेचन
गायत्री की असंख्य शक्तियाँ और उनका सान्निध्य
परब्रह्म परमात्मा की चेतना, प्रेरणा, सक्रियता, क्षमता एवं समर्थता को गायत्री कहते हैं। यह इस विश्व की सर्वोपरि शक्ति है। अन्य छुट-पुट शक्तियाँ जो विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होती हैं, वे देव नामों से पुकारी जाती हैं। यह समस्त देवशक्तियाँ उस परम शक्ति की किरणें ही हैं, उनका अस्तित्व इस महत्तत्व के अंतर्गत ही है। उत्पादन, विकास एवं निवारण की त्रिविध देव शक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से विख्यात हैं। पंच तत्त्वों की चेतना को आदित्य, वरुण, मरुत और अंतरिक्ष कहकर पुकारते हैं। इंद्र, बृहस्पति, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, गणेश, अश्विनी, वसु, विश्वेदेवा आदि सृष्टि के विभिन्न प्रयोजनों में संलग्न शक्तियाँ ही हैं। चूँकि ये दिव्य हैं, प्राणियों को उनका अपार अनुराग मिलता है, इसलिये उनहें देवता कहते हैं और श्रद्धापूर्वक पूजा, अर्चा एवं अभिवंदन करते हैं। यह सभी देवता उस महत्तत्व के स्फुल्लिंग हैं जिसे अध्यात्म भाषा में गायत्री कहकर पुकारते हैं। जैसे जलते हुए अग्नि कुंड में से चिनगारियाँ उछलती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति सरिता गायत्री की लहरें उन देवशक्तियों के रूप में देखी जाती हैं। संपूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को 'गायत्री' कहा जाए तो यह उचित ही है।
हमें जितना भी कुछ वैभव, उल्लास मिलता है, वह शक्ति के मूल्य से ही मिलता है। जिसमें जितनी क्षमता है वह उतना ही सफल होता है और उतना ही वैभव उपार्जित कर लेता है। इंद्रियों में शक्ति रहने तक ही भोगों को भोगा जा सकता है। ये अशक्त हो जाएँ तो आकर्षक-से-आकर्षक भी उपेक्षणीय और घृणास्पद लगते हैं। नाड़ी-संस्थान की क्षमता क्षीण हो जाए तो शरीर का सामान्य क्रिया-कलाप भी ठीक तरह चल नहीं पाता, मानसिक शक्ति घट जाने पर मनुष्य की गणना विक्षिप्तों और उपहासास्पदों में होने लगती है। धन-शक्ति न रहने पर दर-दर का भिखारी बनना पड़ता है। मित्र शक्ति न रहने पर एकाकी जीवन सर्वथा निरीह और निरर्थक प्रतीत होने लगता है। आत्मबल न होने पर प्रगति के पथ पर एक कदम भी यात्रा नहीं बढ़ती। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्मबल से रहित व्यक्ति के लिए सर्वथा असंभव ही है।
अतएव शक्ति का संपादन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए नितांत आवश्यक है। हमें जान ही लेना चाहिए कि भौतिक जगत में जितनी पंचभूतों को प्रभावित करने एवं आध्यात्मिक जगत में जितनी भी विचारात्मक, भावनात्मक तथा संकल्पात्मक शक्तियाँ हैं, उन सबका मूल उद्गम एवं असीम भांडागार वह महत्तत्व ही है, जिसे गायत्री नाम से भी संबोधित किया जाता है। इस भांडागार में जितने ही गहरे उतरा जाए उतनी ही बहूमूल्य रत्न-राशि उपलब्ध होने की संभावना बढ़ती चली जाती है।
विश्व के आत्मोत्कर्ष के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यही प्रतीत होता है कि चरित्र को उज्ज्वल एवं विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त हमारे इसी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरुषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे। देवदूतों, अवतारों, गृहस्थियों, महिलाओं, साधु, ब्राह्मणों, सिद्ध पुरुषों का ही नहीं साधारण सद्गृहस्थों का उपास्य भी गायत्री ही रही है और इस अवलंबन के आधार पर न केवल आत्म-कल्याण का श्रेय साधन किया है वरन् भौतिक सुख-संपदाओं की सांसारिक आवश्यकताओं को भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध किया है।
संसार में अनेक देवताओं के रूप में जो अनेक शक्तियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं जिनकी सहायता से हमारा जीवन धारण, पोषण, अभिवर्धन एवं श्रेय साधन हो रहा है। वे गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत आती हैं। उसे यों भी कहा जा सकता है कि वे गायत्री स्वरूप ही हैं। विश्वव्यापी जल तत्व-नदी, सरोवरों, कूप, तालाबों, जलाशयों, हिंमश्रृंगों, समुद्र और बादलों में विभिन्न रूप, स्वाद
और स्थिति में दिखाई पड़ता है। उसी प्रकार यह गायत्री महातत्त्व अगणित देव-शक्तियों के रूप में ही जाना जा सकता है। शास्त्र कहता है-
अदितिर्देवा गंधर्वा मनुष्याः पितरोऽसुरास्तेषां सर्वभूतानां माता मेदिनी पृथिवी महती मही सावित्री, गायत्री जगत्युर्वी पृथ्वी बहुला विश्वाभूता।
देव, गंधर्व, मनुष्य, पितर, असुर इनका मूल कारण अदिति अविनाशी तत्त्व है। यह अदिति सब भूतों की माता मेदिनी और मातामही है। उसी विशाल गायत्री के गर्भ में विश्व के संपूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
शक्तिः स्वाभाविकी तस्य विद्या विश्वविलक्षणा।
एकानेकस्य रूपेण भाति भानोरिव प्रभा।।
अनंताः शक्तयो यस्या इच्छाज्ञानक्रियादयः।
इच्छाशक्तिर्महेशस्य नित्या काय्र्यनियामिका।
ज्ञानशक्तिस्तु तत्कार्यं करणं कारणं तथा।।
प्रयोजनं च तत्त्वेन बुद्धिरूपाध्यवस्यति।
यथेप्सितं क्रियाशक्तिर्यथाध्यवसितं जगत्॥
कल्पयत्यखिल कार्य क्षणात् संकल्परूपिणी।
विश्व लक्षण वाली विद्या उस परब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति है। वह सूर्य की प्रभा की तरह एक ही अनेक रूपों में प्रकट होती है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया आदि उसकी अनंत शक्तियाँ हैं। ये ही दैवी शक्तियाँ संसार के समस्त कार्यों का नियंत्रण करती हैं। उसकी शक्ति ही कार्य और कारण के रूप में काम करती है और वही अपनी संकल्प शक्ति से अनादिकाल से इसका संचालन करती आई है।
गंगा च यमुना चैव विपाशा च सरस्वती।
सरयूः रेविका सिंधुर्नर्मदैरावती तथा॥
गोदावरी शतद्रूश्च कावेरी देवलोकगा।
कौशिकी चंद्रभागाच वितस्ता च सरस्वती॥
गंडकी तापिनी तोया गोमती वेत्रवत्यपि।
गंगा, यमुना, विपाशा, सरस्वती, सरयू, रेविका, सिंधु, नर्मदा, ऐरावती, गोदावरी, शरद्रु, कावेरी, कौशिकी, चंद्रभागा, वितस्ता, गंडकी, तापिनी, तोया, गोमती, वेत्रवती आदि समस्त सरिताएँ तुम्हीं हो।
इडा च पिंगला चैव सुषुम्ना च तृतीयका।
गांधारी हस्तिजिह्वा च पूषाऽपूषा तथैव च॥
अलंबुसा कुहूश्चैव शंखिनी प्राणवाहिनी।
नाडी च त्वं शरीरस्था गीयसे प्राक्तनैर्बुधै:।।
इड़ा, पिंगली, सुषुम्ना, गाधारी, हस्तजिव्हा, पूषा, अपूषा, अलंबुआ, कुहू, शंखिनी, प्राणवाहिनी-ये शरीर में टिकी हुई समस्त नाड़ियाँ भी तुम्हीं हो।
हृत्पदमस्था प्राणशक्तिः कंठस्थास्वप्ननायिका।
तालुस्था त्वं सद्धारा बिंदुस्था बिंदुमालिनी॥
मूले तु कुंडलीशक्तिव्यांपिनी केशमूलगा॥
हृदय कमल में टिकी हुई प्राणशक्ति, कंठ में स्थित स्वप्नशक्ति, तालु में सदाधारा, भौहों के मध्य बिंदुमालिनी, मूलाधार में कुंडली शक्ति, केशमूल में व्यापिनी शक्ति तुम्हीं हो।
गरिष्ठा च वराही च वरारोहा च सप्तमी।
नीलगंगा तथा संध्या सर्वदा भोगमोक्षदा।।
गरिष्ठा, वराही, वरारोहा, नीलगंगा, संध्या तथा भोगमोक्षदा।
हंसस्था गरुडारूढा तथा वृषभवाहिनी।
ऋग्वेदाध्यायिनी भूमौ दृश्यते या तपस्विभिः॥
ब्राह्मी हंसारूढ़ा, सावित्री वृषवाहिनी और सरस्वती गरुड़ारूढ़ हैं। इनमें से ब्राह्मी ऋग्वेदाध्यायियी, भूमितल में तपस्वियों द्वारा देखी जाती हैं।
ब्रह्मांड में संव्याप्त अनेक शक्तियाँ इस जगत् का संचालन एवं नियंत्रण करती हैं। उन्हीं के कारण संसार इतना सुंदर और गतिशील दिखाई पड़ता है। यदि यह शक्तियाँ न होतीं और केवल जड़ पदार्थ ही इस संसार में भरे होते तो यहाँ श्मशान जैसी नीरवता का ही साम्राज्य होता, न कोई हलचल होती न परिवर्तन की गुंजायश रहती। तब न प्राणियों, वनस्पतियों का आविर्भाव होता और न उनके कारण जो विविध-विध, क्रियाकलाप चल रहे हैं, उनकी कोई संभावना रहती। संसार का जो भी स्थूल, सूक्ष्म स्वरूप हमारे सामने उपस्थित है, उसके मूल में वे अदृश्य शक्तियाँ ही काम कर रही हैं, जिन्हें देवताओं अथवा देवियों के नाम से पुकारा जाता है। स्मरण रखने की बात यह है कि यह सारा शक्ति परिवार जगज्जननी गायत्री महाशक्ति का ही सृजन, निर्माण, वैभव एवं विस्तार है। हम गायत्री महाशक्ति को अपने में जिससे विश्वव्यापी शक्ति श्रृंखला के साथ अपना संबंध स्थापित कर सकें। उन्हें अभीष्ट प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त कर सकें। यह क्षमता जिन्हें उपलब्ध हो जाती है, वे सिद्ध पुरुष कहलाते हैं। सामान्य पुरुषों को इन शक्तियों के आधिपत्य में रहना पड़ता है, वे परिस्थितियों के दास रहते हैं, पर जिन्हें शक्तियों से संबंध बनाने एवं उन्हें मोड़ने का अधिकार मिल जाता है, वे परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लेते हैं। इस अनुकूलता के आधार पर वे अपना और असंख्य दूसरों का भला कर सकते हैं। शक्तिरूपा गायत्री के बारे में शास्त्र कहते हैं-
भ्राजते दीप्यते यस्माजगदन्ते हरत्यपि।
कालाग्निरूपमास्थाय सप्तार्चिः सप्तरशिमभिः॥
जिस तेज के प्रताप से यह जगत् शोभित, वर्द्धित एवं सचेतन होकर अंत में समाप्त हो जाता है, वही सप्तार्चि तथा सप्तरश्मियुक्त सत्ता कालरूपी अग्नि की भाँति रूप धारण करती है।
त्वमेव संध्या गायत्री सावित्री च सरस्वती।
ब्राह्मी च वैष्णवी रौद्री रक्ता शश्वेता सितेतरा॥
संध्या, गायत्री, सावित्री, सरस्वती, ब्राह्मी, वैष्णवी, रौद्री, रक्ता, श्वेता, कृष्णा तुम्ही हो।
ततः परा पराशावितः परमा त्वं हि गीयसे।
इच्छाशक्तिः क्रियाशक्तिज्ञानशक्तिस्त्रिशक्तिदा॥
तुम्हीं परा, परमशक्ति कही जाती हो। इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति भी तुम्हीं हों।
रुद्रलोकं गता त्वं हि विष्णुलोकनिवासिनी।
त्वमेव ब्रह्मणों लोकेमर्त्यानुग्रहकारिणी।।
सावित्री रुद्र लोक में, सरस्वती विष्णुलोक में और ब्राह्मी ब्रह्मलोक में विराजमान रहती हैं-ये सब प्राणियों पर कृपा करने वाली हैं।
मानव-शरीर में अनेक शक्तियाँ हैं, उसके मस्तिष्क एवं हृदय में इतनी अद्भुत क्षमताएँ हैं, जिनका कोई पारावार नहीं। देखने में सभी मनुष्य लगभग एक जैसे प्रतीत होते हैं। हाड़-मांस, इंद्रियाँ अंग, अवयव, आहार-विहार, स्वभाव, अभ्यास, लंबाई, चौड़ाई की दृष्टि से मानव-प्राणियों से कुछ बहुत ज्यादा अंतर दिखाई नहीं देता, पर उनमें जो सूक्ष्म विशेषताएँ सन्निहित हैं, उन्हीं की न्यूनाधिकता से कोई गई-गुजरी स्थिति में पड़ा रहता है, कोई उन्नति के उच्चशिखर पर जा पहुँचता है। बहुतों को इन क्षमताओं के अभाव में दु:ख-दारिद्रय से भरा शोक-संतापग्रस्त जीवन जीना पड़ता है, पर जिसमें कुछ विशेषताएँ प्रतिभा के रूप में अधिक होती हैं, वे उन उपलब्धियों के कारण अनेक दिशाओं में सफलताएँ प्राप्त करते हैं और सुख-शांति का लाभ लेते हुए यशस्वी एवं तेजस्वी जीवन व्यतीत करते हैं। इन शक्ति संस्थानों से बढ़कर भी अदृश्य ब्रह्मांड में कुछ देव शक्तियाँ हैं, जो मनुष्य की सत्ता से भी सामथ्र्यवान हैं और उनसे लाभान्वित होने का भी विज्ञान है। भारतीय दर्शन की विशेषता है कि देव शक्तियों का यह वैज्ञानिक अनुसंधान ही रहा है।
विश्वव्यापी ईश्वरीय चेतना शक्ति प्रवाह गायत्री से संबंध स्थापित करके मनुष्य कितने प्रकार के लाभ प्राप्त कर सकता है? इसकी सही गणना कर सकना तो कठिन है, पर प्राचीनकाल के तत्त्वदर्शियों ने उनकी एक अनुमानित सीमा एक सहस्त्र मानी है। जिस प्रकार किसी जड़ी-बूटी का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उसके भीतर पाए जाने वाले पदार्थों, क्षारों, विटामिनों तथा गुणों की व्याख्या की जाती है, उसी प्रकार गायत्री महाशक्ति का विश्लेषण भी प्राचीनकाल के अज्ञात तत्ववेत्ता लोगों ने किया है और निरूपण को 'गायत्री सहस्त्रनाम' से प्रस्तुत किया गया है।
गायत्री सहस्रनाम का महत्त्व पाठ-उपासना की दृष्टि से तो है ही, पर उसमें लिखे हुए गायत्री के एक हजार नाम केवल नाम मात्र ही नहीं हैं, वरन् प्रत्येक नाम में गायत्री तत्त्व में सन्निहित तत्वों, तथ्यों, गुणों, प्रभावों और विशेषताओं का विश्लेषण है। उन एक हजार के प्रत्येक नाम पर यदि हम ध्यान दें तो पता चलेगा कि गायत्री की कितनी बड़ी महत्ता है और उसके अंतर्गत तथ्यों का उपयोग हम अपनी किन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कर सकते हैं?
गायत्री के उन सहस्रनामों में से कुछ नामों का विश्लेषण उपस्थित किया जाता है।
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